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कविता

एक चिट्ठी पिता के नाम

रेखा चमोली


पिता ! मेरे जन्म की खबर सुनाती
दाई के आगे जुड़े हाथ
क्यों हैं अब तक
जुड़े के जुड़े

मुझे लेकर क्यों नहीं उठाते
गर्व से अपना सिर
क्यों हो जाते हो
जरूरत से जयादा विनम्र

एक तनाव की पर्त गहरी होती
देखी है मैंने
तुम्हारे चेहरे पर
जैसे जैसे मैं होती गई बड़ी
जिसने ढक ली
मेरी छोटी छोटी सफलताओं
की चमक

मुझे सिखाया गया हमेशा
झुकना विनयशील होना
जिस तरह बासमती की बालियाँ
होती हैं झुकी झुकी
और कोदा झंगोरा सिर ताने
खड़ा रहता है
याद दिलाया गया बार बार
लाज प्रेम दया क्षमा त्याग
स्त्री के गहने हैं
जिनके बिना है स्त्री अधूरी

तुम चाहते थे मैं रहूँ
हर परिस्थति में
आज्ञाकारी कर्तव्यनिष्ठ
परिवार और समाज के प्रति
अपने ऊपर होते हर अन्याय को
सिर झुकाकर सहन करती रहूँ
सबकी खुशी में
अपनी खुशी समझूँ
और मैं ऐसी रही भी
जब तक समझ न पाई
दुनियादारी के समीकरण

पर अब मैं
साहस भर चुकी हूँ
सहमति व असहमति का
चुनौतियाँ स्वीकार है मुझे
मेरी उन गलतियों के लिए
बार बार क्षमा मत माँगो
जो मैंने कभी की ही नही

पिता
मुझ पर विश्वास करो
मुझे मेरे पंख दो
मैं सुरक्षित उड़ूँगी
दूर क्षितिज तक
देखूँगी नीला विशाल सागर
भरूँगी अपनी साँसों में
स्वच्छ ठंडी हवा
पिता तुम्हीं हो
जो मेरी ऊर्जा बन सकते हो
मुझे मेरी छोटी छोटी
खुशियाँ हासिल करने से
रोको मत।

 


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